जानने के लिए पढ़ें आखिरकार क्यों मनाई जाती है दिवाली?

जानने के लिए पढ़ें आखिरकार क्यों मनाई जाती है दिवाली?

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दीपावली का त्योहार देशभर में मनाया जाता है लेकिन इसे मनाए जाने का हर प्रांत में अलग अलग कारणों का होना आश्चर्य में डालने वाला है। इसे मनाए जाने के तरीके भले ही एक जैसे हों लेकिन इस दिन बनाए जाने वाले व्यंजन भिन्न-भिन्न होते हैं।

जब देश के हर प्रांत के लोग एक ही जगह रहकर दीपावली मनाते हैं तो निश्चित ही सैंकड़ों तरीके के व्यंजन बनते हैं जिनका स्वाद चखकर मन प्रसंन्न हो सकता है। हालांकि दीपावली के दिन दीप जलाने, मिठाई बांटने और पटाखे छोड़ने का प्रचलन आम है।

प्राचीन अवशेष : सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और 3500 ईसा वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी।

मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वत: ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू सभ्यता थी।

अब सवाल यह उठता है कि इस त्योहार का प्रचलन कब से और क्यों हुआ? दरअसल, उत्तर भारत में दीपावली मनाएं जाने का कारण अलग है तो दक्षिण भारत में अलग। इसी तरह पश्चिम भारत में अलग तो पूर्वी भारत में अलग। दशों दिशाओं में दीपावली भिन्न भिन्न कारणों से मनाई जाती है।

उत्तर भारत : उत्तर भारत में अधिकतर लोग भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास से अयोध्या वापस लौटने की याद में मनाते हैं। श्रीराम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए और लोगों को मिठाईयां बांटकर एक दूसरे को बधाइंयां दी। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चांद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था।

ऐसे माहौल में अयोध्यावासियों ने भगवान राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके अपने आराध्य और राजा का स्वागत किया। तभी से दीपावली का यह त्योहार प्रचलन में आया।

ऐसा भी माना जाता है कि दीपावली के एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था जिसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियां मनाई थीं।

दक्षिण भारत : दक्षिण भारत में दीपावली त्योहार दो घटनाओं से जुड़ा है एक तो राजा महाबली की तीनों लोक पर विजय और पाताललोक का राजा बनने की याद में दूसरा श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध कर सैंकड़ों स्त्रियों और पुरुषों को कैद से मुक्त कराने की याद में मनाया जाता है।

असम के राजा नरकासुर ने हजारों निवासियों को कैद कर लिया था। श्री कृष्‍ण ने नरकासुर का दमन किया और कैदियों को स्‍वतंत्रता दिलाई। इस घटना की स्‍मृति में दक्षिण भारत के लोग सूर्योदय से पहले उठकर हल्दी तेल मिलकर नकली रक्त बनाकर उससे स्नान करते हैं। इससे पहले वे राक्षस के प्रतीक के रूप में एक कड़वे फल को अपने पैरों से कुचलकर विजयोल्‍लास के साथ रक्‍त को अपने मस्‍तक के अग्रभाग पर लगाते हैं।

एक अन्य कथा अनुसार महाप्रतापी तथा दानवीर राजा बाली ने जब स्वर्ग सहित तीनों लोगों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बाली से भयभीत देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर प्रतापी बाली से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में मां ली।

बाली ने याचक को निराश नहीं किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी। विष्णु ने दो पग में तीनों लोकों को नाप लिया। तीसरे के लिए उन्होंने बाली से पूछा इसे कहां रखी तब बाली ने कहा प्रभु अब मेरा सिर ही बचा है।

राजा बाली की इस दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू-लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीप जलाकर उत्सव मनाएंगे। इसके अलावा हिरण्यकश्यप का वध भी इसी दिन किया गया था।

लक्ष्मी माता का प्रकटोत्सव : इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी और धन्वंतरि जी प्रकट हुए थे। पौराणिक मान्यता अनुसार दीपावली के दिन ही माता लक्ष्मी दूध के सागर, जिसे केसर सागर के नाम से जाना जाता है, से उत्पन्न हुई थीं।

माता ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया और उनका उत्थान किया। इसलिए दीपावली के दिन माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

महाकाली की पूजा : अमावस्या की रात को महाकाली की रात माना जाता है। इसी दिन शाक्त संप्रदाय के लोग महाकाली की पूजा ही करते हैं। कथा अनुसार राक्षसों का वध करने के लिए मां देवी ने महाकाली का रूप धारण कर कई राक्षसों का वध करने के बाद भी जब उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तो भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप की शुरुआत हुई।

यक्षों का त्योहार : भारतवर्ष में प्राचीनकाल में देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, विद्याधर आदि अनेक प्रकार की जाति हुआ करती थी। उन्हीं में से एक यक्ष नाम की जाति के लोगों का ही यह उत्सव था।

उनके साथ गंधर्व भी यह उत्सव मनाते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे।

दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, स्वादिष्ट पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है।

कहते हैं कि लक्ष्मी, कुबेर के साथ गणेशजी की पूजा का प्रचलन भौव-सम्प्रदाय के लोगों ने किया। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेशजी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं।

इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अत: कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णुजी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया है।